• ऐतिहासिक नगर रामपुरा के जल संसाधन तालाब : चंद्रावत राजवंश का वास्तुशिल्प एव प्रबंधन

    मुकेश राठौर MUKESH RATHOR   - रामपुरा
    ऐतिहासिक नगर रामपुरा के जल संसाधन तालाब
    आलेख   - रामपुरा

  • रामपुरा
    रामपुरा राज्य चन्द्रवतों के आधीन एक समन्नुत राज्य रहा है। यह नगर अरावली की तलहटी में बसा जल संसाधनों का श्रेष्ठतम उदाहरण प्रस्तुत करता है। रामपुरा दुर्ग का निर्माण दुर्गभान ने पूर्व के कच्चे किला कोट को गिरवाकर करवाया था। दुर्गभान का राज्यकाल सर्वाधिक शांतिमय रहा और इसी काल में इस नगर की सर्वोत्मुखी उन्नति भी हुई। इनके राज्य प्रशंसा में यह दोहा बहुत प्रसिद्ध है।

    'रामपुरा दुर्गभान का देखत भागे भूख । घर-घर राणी पद्मनी, घर-घर चम्पा रुख ॥ 1

    दुर्गभान द्वारा राज्य के नव निर्माण, जलाशय और महलों का निर्माण करवाया गया। उनके पश्चात् राव सज्जनसिंह ने दो महलस, चौबुजा, किलाकोट को पूर्ण करवाया, छज्जे पर बावड़ी बनवाई, बाग लगवाए, बाक्या तालाब बनवाया यह सब वि.सं. 1378 में निर्मित हुए। दुर्गभान ने जिस निर्माण परम्परा और जल संसाधनों की परंपरा संवत् 1534 में आरम्भ की थी वह पश्चात् के राजाओं रानियों और सेठ, साहूकारों ने निरंतर रखी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय रामपुरा में 7 तालाब और 1434 कुँए बावड़ियां उपलब्ध थीं ।

    रामपुरा राज्य के पाटनामें एवं भाटखेड़ी कामदार द्वारा लिखित इतिहास (हस्तलिखित) ।

    15 वीं 16 वीं शताब्दी तक तो मालवा में खूब सारी बावड़ियाँ, तालाब, कुँए और कुँड निर्मित थे। कई तालाब तो प्राकृतिक रुप से निर्मित थे। और कुछ मानव निर्मित। दुर्गभान के अरावली पठार से आने वाले जल के बहाव को रोककर तालाब बनवाने पर ध्यान दिया। दुरगभान ने महल के पश्चिम में एक विशाल तालाब का निर्माण करवाया। 2

    • दुर्ग सागर का निर्माण सं. 1567 में पूरा हुआ। इस तालाब की पूर्व पश्चिम चौड़ाई 400 मीटर तथा लंबाई 800 मीटर है। यह एक प्राकृतिक लम्बाकार है। उत्तर दिशा में अरावली पठार से बहकर आने वाले वर्षा जल को इस तालाब में संग्रहित किया जाता था। इसके तीन और पक्के पाल घाट बनाए गए है। पाल से • लगाकर तालाब के भीतर तल तक सीढ़ियाँ बनाई गई है। चारों कोनों पर सुन्दर

    नदी-पेड़ और पर्यावरण(64)

    नक्काशीदार छत्रियाँ बनी हुई हैं। दक्षिणी व पश्चिमी घाट अधिक सुन्दर बने हुए।

    तालाब के मध्य में एक गोलाकार बारादरी बनी है। इस तालाब की गहराई आज तक नहीं नापी गई किन्तु वहाँ तैरने वाले लोगों का कहना है कि, दुरंग सागर के मध्य का तला आज तक कोई नहीं छू सका। आठ-दस परस (लगभग 56-64 फुट) से अधिक गहरा होगा।

    दक्षिणी पाल के नीचे मोखे बने हैं। जब तालाब में पानी अधिक भर जाता है तब ये मोखे खोल दिए जाते थे। तालाब का पानी बहकर एक नाले से द्वारा दूर बनी लाला तलाई में पहुँचाई जाता था। यह तालाब आज भी रामपुरा के नागरिकों के लिए एक महत्वपूर्ण जल संसाधन है।

    वाटर लिफ्टिंग का यह तालाब एक नायाब उदाहरण है। जब देखा जाता था कि, लाला तलाई पहले से ही भर चुकी है और दुरग सागर के पानी का समाव इसमें संभव नहीं होगा तब नाले को 'बांक या तालाब' 3 की ओर मोड़ दिया जाता था। बाक्या तालाब का निर्माण रावसज्जनसिंह ने 1378 वि. में करवाया। जिसमें सात लाख तेरह हजार कलदार रुपये खर्च हुए। कई बार जब पानी निथर जाता था तब उसे आवश्यकता पड़ने पर नीलिया तालाब में पहुँचाया जाता था। इसके लिए बीच में एक कुंड में रेत छनकर वह पानी नीलिया तालाब में चला जाता था।

    इस तालाब को बनवाने में उस समय तीन लाख सत्तावन हजार नौ सौ चौतीस रुपये लगे थे। बादल महल बनवाने (गोल बारादरी) में कुल एक लाख उन पच्चास हजार नौ सौ पैसठ कलदार का खर्चा आया था। इसमें पाल पर बनी छत्रियाँ का तथा शिव मंदिर का खर्चा अलग था। जिसका आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार यदि शिव मंदिर और तीनों छत्रियों का व्यय भी जोड़ा जाए तो लगभग दो लाख अनुमानित हैं तब इस तालाब पर कुल मिलाकर सात लाख सात हजार आठ सौ निन्यानवे रुपये कलदार खर्च किए गए थे। दुरगभान ने यह तालाब जन कल्याण को दृष्टि में रखकर ही बनाया था। तब रामपुरा में जल संसाधन के नाम पर यही तालाब था। इसके अलावा प्राकृतिक तालाबों में 'बाक्या तालाब' लाला तलाई तथा बंजारा तलाई भी था। जो पशुओं को पानी की सुविधा के लिए उपलब्ध थे । दुरग तालाब उन तीनों तालाबों का भी भरण करता था।

    यदि हम तालाबों के प्रकारों और उनके वास्तु शिल्प की चर्चा करे तब कुम्भा कालीन मंडन के ग्रंथ राजवल्लभ में तालाबों के विभिन्न प्रकारों और उनके शिल्प पर विस्तृत चर्चा मिलती है। 5

    नदी-पेड़ और पर्यावरण(65)

    मंडन ने छह प्रकार के तालाबों का वर्णन अपने ग्रंथ में किया है। इन छह • प्रकार के तालाबों में चौकोर, त्रिकोण, बहुकोणी, लम्बाकार, चन्द्रकार तथा महाकारा सामान्यतः महाकार, चतुष्कोणीय एवं त्रिकोणीय तालाब श्रेष्ठ माने जाते हैं।

    विश्व वल्लभ उल्लास में तालाब के लिए भूमि चयन के विषय में कहा गया है। कि 6 कि, जल आवाक को सुनिश्चित करने के पश्चात् वहाँ तालाब बनाया जाना चाहिए। उस स्थिति में यदि वास्तुशिल्प को थोड़ा बहुत तोड़ना पड़े तब भी कोई बात नहीं। दो पर्वतों के बीच अथवा पर्वत के बहाव तक पाल बाँधकर पानी का संग्रह किया जा सकता है। जहाँ जल की आवक कम हो तो वहाँ छोटे तालाब बनाना चाहिए। 7 रामपुरा के बांक्या तालाब और लाला तालाब इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं । पाल पर राजप्रासाद, मंदिर और छत्रियाँ बनाने का भी प्रावधान है।

    दुर्ग सागर उपरोक्त वास्तु शिल्प के मान से लम्बाकार किन्तु त्रिकोणीय श्रेणी का तालाब है। इसके उत्तर में अरावली पर्वत है। अरावली के बहाव का पर्याप्त जल इस तालाब में आता है। वर्षा जल का संग्रहण होने केकारण यह तालाब कभी भी खाली नहीं होता है बल्कि अधिक या पर्याप्त वर्षा होने पर इसका पानी मोखे बंद हो गए हैं। राज्यकाल में मोखों और जल को अन्यत्र ले जाने वाली नालियों, नालों की देख रेख और मरम्मत के लिए एक जागीर निकाली गई थी जिस का नाम नालो 'ठिकाना' था। इसी प्रकार दुर्ग के कोट के भीतर तालाबों तथा बाहर के तालाबों के रख-रखाव व साफ-सफाई के लिए भी जागीर निकाली गई थी जिसका नाम 'ठिकाना तलाऊ' था। ये गाँव आज भी अस्तित्व में हैं किन्तु वे अपने दायित्व से मुक्त हो चुके हैं ।

    तालाब के निर्माण में कुछ महत्वपूर्ण निर्देश भी निर्धारित है। संक्षेप में कहें तो गोचर भूमि के निकट ढलावदार भूमि, मुरम वाली भूमि तालाब के लिए उचित स्थान माना गया है। जिस दिशा में जल बहाव होने की संभावना हो उस दिशा में हड़वाड़ा (मृत पशुओं के फैकने का स्थान), श्मशान भूमि, शौच भूमि जैसे अशौच स्थल नहीं होना चाहिए। आगौर अर्थात् पानी का आवक मार्ग स्वच्छ हो। कटाव से बचाव के लिए पत्थरों को डालकर पटाई की जाए। अपरा (मोखा-निकास) सुरक्षित रहे। पाल की ऊँचाई पहले निर्धारित की जाए। नींव की चौड़ाई से ऊँचाई आधी होगी और अंतिम चौड़ाई कुल ऊँचाई से आधी होगी। नेष्ठा पाल की सुरक्षा के लिए बनाया जाता है। जिससे अतिरिक्त पानी पाल को हानि पहुँचाए बिना स्वतः जाए। यह नेष्टा पाल से एक हाथ अर्थात् तालाब का डेढ़ फुट नीचे रखा जाता है। ● आगौर अर्थात् तालाब का भीतर भाग जिसमें पानी संग्रहित रहेगा। यदि हम मोटे रूप में उपरोक्त निर्माण शिल्प कसौटी पर दुरगसागर का मूल्यांकन करें तब यह तालाब वास्तुशिल्प की कसौटियों पर खरा उतरता है। यही कारण है कि, आज भी यह तालाब अपने लगभग 500 वर्षाकाल व्यतीत कर लेने के पश्चात भी सुरक्षित हैं।

    बड़े तालाबों के अतिरिक्त जल का उपयोग छोटे तालाब बनाकर उस अतिरिक्त बहाव के पानी को अपरा या मोखों से निकालकर छोटे तालाबों में संग्रहण करना भी तालाब शिल्प की एक विधि है। इस प्रक्रिया से जल का अपव्यय नहीं हो पाता। दुरग सागर इस मान से भी खरा उतरता है। इसके अतिरिक्त जल बहाव पानी नाले द्वारा बाक्या तालाब तक ले जाया जाता था। इसी प्रकार नीलिया तालाब और बाक्या तालाब को भी परस्पर भीतर भूमिगत नालियों द्वारा जोडा गया था।

    रामपुरा दुर्ग के परकोटे (नगर कोट) के भीतर एक और तालाब जिसे जाम सागर (छोटा तालाब) कहा जाता है तालाब के वास्तु शिल्प एवं निर्धारित निर्माण निर्देश के मान से एक अद्भुत एवं उत्कृष्ट उदाहरण है।

    जाम सागर का निर्माण नगसिंह चन्द्रावत की रानी जामवंतीजी ने करवाया था। यह तालाब रामपुरा के लाल बाग में स्थित है। यह तालाब 500 मीटर 500 मीटर चौरस तीन ओर पक्के घाट-सीढ़ियाँ बनी है। दक्षिण कोने पर अत्यंत सुन्दर एवं विशाल बादल महल बना था। जिसके खण्डहर आज भी देखे जा सकते हैं । तालाब के मध्य में एक अष्ठ स्तम्भ वाली बारादरी बनी है। पाल के चारों कोनों पर सुन्दर मेहराबदार छत्रियाँ सुशोभित हैं। जामसागर के दक्षिण पूर्वी कोने पर सुन्दर नक्काशीदार भव्य द्वार बना है जो बादल महल का प्रवेश द्वार था। बादल महल से तालाब में प्रवेश के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। यह तालाब वास्तु कला का उत्कृष्ट नमूना है। आज भले ही यह विघ्नकारी तथा राजनैतिकदुष्ट तत्वों द्वारा उपेक्षित तथा खंडित कर दिया गया है। फिर भी यह नगर केमध्य निर्मित तालाब चन्द्रावत राजाओं की ऐतिहासिक विरासत के रूप में आज भी अपनी यश गाथा स्वयं बखान कर रहा । जाम सागर में चतुर्दिक सीढ़ियाँ तो हैं ही इसके तल भाग में भी फर्शी लगी हैं। से हम चाहें तो विशाल कुण्ड भी कह सकते हैं किन्तु कुण्ड के आदर्श मानक के न से यह बहुत बड़ा है। इसलिए इसे तालाब कहना ही उचित है।

    जाम सागर में पानी का भरण अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है। अरावली हार से बहकर आने वाली पानी को 'कंथार नाले' की ओर ले जाया जाता था। नके लिए कई छोटे नाले बनवाए गए थे। कंथार नाला पानी को बहाकर 'रतन नाई' में लाता था। रतन तलाई एक कुंड के समान किन्तु प्राकृतिक तलाई थी।

     यह तलाई राज परिवार के लिए पर्यटन एवं वनश्री का आनंद लेने के लिए बनवाई गई थी। राव रतन ने इसकी मरम्मत करवाकर इसे सौंदर्य प्रदान किया इस कारण बाद में इसे रतन तलाई कहा जाने लगा। वस्तुतः इसका निर्माण जामवंती ने मुख्य तालाब के जल प्रबंधन के लिए करवाया था। रतन तलाई से पानी पहले अपरों द्वारा तथा फिर नीचे के माखों द्वारा एक पक्की नाली के माध्यम से बड़े पक्के कुण्ड में लाया जाता है। बडेकुंड से पानी दो और श्रृंखलाबद्ध कुंडों में एकत्र किया जाता था। तीनों कुंडों में बजरी (रेत) डाली जाती थी। जिससे पानी छन-छनकर आगे बढ़ता रहे। इसके बाद पक्की नालियों द्वारा कुंडों का पानी जाम तालाब में लाया जाता था। प्रत्येक वर्षा काल के पश्चात् कुंडों की सफाई की जाती थी।

    तालाब में भी जल स्रोत थे। उसमें कुँए या बावड़ियों की भाँति जल स्रोतों से भी जल भरण होता था। इस प्रकार वर्षा जल का छनाव होकर जाम सागर लबालब भर जाता था। यह तालाब उस काल में स्वच्छ जल का एकमात्र सुलभ साधन था। समूचा नगर इस तालाब से पानी पीता था। एक विशाल बावड़ी की तरह था यह जाम सागर। अब इसके जलाशय संसाधन के पक्के भवनों ने ध्वस्त कर दिया है इस कारण यह जाम सागर जल स्रोतों से विहीन होकर एक खंडहर मात्र रह गया है। रामपुरा में बारह बावड़ियाँ बनी हुई हैं। जिनका निर्माण जन कल्याण के लिए चन्द्रावत राजाओं और सेठ साहूकारों ने करवाया था। जो आज भी अस्तित्व में है। 9 कुछ गाँधीसागर के जल विस्तार में डूब गई हैं। इनके सास-बहू की बावड़ी और पातशाल की बावड़ी शिल्प के मान से दर्शनीय है। जाम सागर के निर्माण में उस काल में छः लाख इक्कीस हजार नौ सौ निव्यासी कलदार रुपये खर्च हुए। 10

    नीलिया तालाब - यह तालाब रामपुरा नगर कोट में ही (मोहल्ले) में स्थित है। इसके उत्तर में अरावली पठार है। यह तालाब भी दुर कुशालपुरा क्षेत्र सागर का समकालीन है। इसका निर्माण अचलदास चन्द्रावत की रानी जाजकुंवर सिरोही ने करवाया था । 11

    इसका भराव भी दुरगसागर की तरह अरावली से बहकर आने वाले वर्ष जल, ढलान के झरनों से इसका भरण होता था। बड़े तालाब से दुरग सागर का एक नाला भी इसका भरण करता था। राजमहल के पश्चिम में दुरग सागर है तो पूर्व में यह जाज कुंवर सागर ।

    सती हुई। तालाब का काम अधूरा रह गया। वना यह तालाब दुरंग सागर से भी अचलसिंह भोपाल युद्ध में शहीद हो गए। रानी जाजकुंवर (जामवंती पहले बन चुका होता। बाद में दुरगभान ने इसे पूरा किया। दुरगसागर की भाँति  यह तालाब भी रामपुरा किलाकोट के भीतर जल संसाधन का अत्यंत सुलभ जलाशय था । दुरंग सागर एवं यह नीलिया तालाब मिलाकर राज्य दुर्ग की जलपूर्ति में सक्षम थे।

    इस तालाब की भी भराई छनकर आने वाले पानी द्वारा होती थी। इसी की शिल्प से प्रेरणा लेकर जामवंती ने जाम सागर बनवाया। इसका जल नीलाभ वर्ण का तथा स्वच्छ रहता था। इस कारण लोक में इसका नाम नील सागर चर्चित हो गया। पूर्व में यह तालाब चारों ओर से खूब खुली भूमि में था। बाद में इसके चतुर्दिक भवनों के निर्माण होते चले गए और यह तालाब चारों ओर से घिर गया और यह तालाब भी जाम सागर की तरह उपेक्षित होता चला गया। आज भी इसमें जल भरण तो होता है किन्तु इसका पानी नीलाभ व स्वच्छ नहीं रहा। इसमें मोहल्ले का कचरा और काई जम चुकी है। इस नीलिया तालाब को दुरगभाण ने दुरंग सागर के साथ-साथ पूर्ण किया। इस पर कुल ग्यारह लाख बावन हजार सात सौ बहत्तर कलदर खर्च आया। 13

    गोलाकार तालाबों में ढँढेरी चारभुजा का तालाब और महागढ़ का तालाब माना जा सकता है। पड़दां का पुसकरिया तालाब लाखा बंजारा ने बनवाया था। 1 3 यह भी गोलाकार श्रेणी का विशाल तालाब था। पीपल्यारावजी में एक बड़ा तालाब था। ये चारों तालाब अब कृषि भूमि में बदल चुके हैं। मनासा का तालाब भील मीणों के काल के हैं । चन्द्रावत काल से पूर्व का है। यह भी गोलाकार श्रेणी का तालाब है। यह तालाब आज भी कायम है। यह पूरा तालाब सहित लोक श्रम द्वारा बनाया गया जो एक उदाहरण है।

    इस तालाब में साठ एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई की जाती है। चरागाह भूमि के लगभग एक हजार पशु प्रतिदिन यहाँ पानी पीते हैं तथा नगर के अनेक लोग यहाँ स्नान करते हैं इस तालाब का प्रबंधन जनपद पंचायत मनासा करती है।

    बेसला का तालाब - यह तालाब रामपुरा से 12 किलोमीटर दूरी पर सड़क के किनारे स्थित है। यह पूर्णरुपेण प्राकृतिक तालाब है। पूर्व में घाट बना हैं। शेष तीन दिशाओं से इसका वर्षाजल से भरण होता है। यह तालाब लगभग आठ दस एकड़ तक विस्तारित है। पूर्व दिशा में पानी के निकास हेतु मोखे बने हैं जिन्हें कलों द्वारा बंद किया व खोला जाता है। इस तालाब से चालीस से पचास एकड़ भूमि की सिंचाई की जाती है। दूर-दूर के पशु यहाँ पर आकर पानी पीते हैं। यह तालाब एक समय होल्करों के प्रबंधन में था। इसका निर्माण रामपुरा के चन्द्रावत राजाओं ने चराहगारों के पशुओं पीने एवं प्रजा की जल व्यवस्था के लिए करवाया

     

    था। वर्तमान में इसका प्रबंधन स्थानीय ग्राम पंचायत करती है। इस तालाब में सिंगाड़ों की खेती की जाती है। इस कारण 'सिंगाड़ा तालाब' भी कहा जाता है। दुधलाई का तालाब - यह तालाब रामपुरा से आठ किलोमीटर मनासा की

    ओर स्थित है। (यह चन्द्रावत कालीन तालाब है) दुधलाई ठिकाना चन्द्रावत राज्य के राज चारणों का जागीरी ठिकाना रहा है। चारण महल के दक्षिण में यह तालाब बना हुआ है। यह प्राकृतिक तालाब है। इसका उपयोग चरागाह के पशुओं तथा स्नानादि के लिए होता है। यह प्राकृतिक तालाब है। पूर्व की और पक्का घाट बना है। प्रबंधन की लापरवाही के कारण यह तालाब अपना अस्तित्व खोता जा रहा है। निर्मल जल के कारण इसे दूधतलाई कहा जाता था। यही नाम कालांतर में 'दुधलाई ' हो गया।

    इन चौदह मुख्य तालाबों के अलावा भी ग्यारह तालाब इस अंचल में और भी है। छोटी तसलैया तो कई हैं। वस्तुतः रामपुरा राज्य अंचल में जल संसाधन अत्यंत गहन रूप से प्रबंधित किया गया था। तालाबों के अलावा इस अंचल में लगभग 50 बावड़ियाँ तथा अनेक कुएँ भी निर्मित करवाए गए थे। मध्यकाल के ये जल संसाधन आज भी अपनी गौरवशाली ऐतिहासिक विरासत के रूप में हमारी अमानत हैं जिनकी सुरक्षा, पुनजीर्विन, पुनर्व्यवस्था एवं प्रबंधन करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। ये समस्त मध्यकालीन जल संसाधन हमारे प्रेरणा स्रोत है।

    तालाबों का महत्व जहाँ कृषि भूमि सिंचन, पशु पालन एवं गाँव-ठिकानों के निवासियों की जल सुविधा के लिए था वहीं इनके कारण आसपास के कुओं - बावड़ियों का जल स्तर भी कायम रहता था। जहाँ-जहाँ भी तालाबों के अस्तित्व को समाप्त कर दिया गया है। वहाँ कुँए-बावड़ियों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है। ये तालाब हमारी संस्कृति के अंग है। हमने इन्हें देवता की तरह पूजा है।

    हमारे अनेक धार्मिक अनुष्ठान सरोवरों के तटों पर ही पूर्ण होते हैं। तालाबों को ही क्यों हमने तो इनके शिल्पकारों का भी सदा सम्मान किया है। कार्यारंभ से पूर्व इन शिल्पकारों की भी हमने पूजा की है। दुसाध, नौनिया, गौड़, परधान, कोल, ढीमर, धीवर, भोई, कोरी, ओढ़ जैसी तालाब खनन एवं निर्माण शिल्प की प्रवीण जातियाँ रही है। इन्हें समाज ने सदा संरक्षण दिया है। ये जातियाँ भी सरोवरों की भाँति हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग मानी जाती रही है ।

    रामपुरा राज्यांचल के इन जल स्रोतों का वर्णन इसलिए महत्वपूर्ण है कि, हमें यह ज्ञात रहें कि कितने जतन से लोक कल्याण हितार्थ इन जलस्रोतों का निर्माण करवाया गया था। इनके इर्द-गिर्द फलदार व फूलदार तथा छायादार बाग

     कुंजों को लगवाया गया था। चतुर्दिक लहलहाती ही हरियाली की रूप छवियाँ सुशोभित थी। अब ये सब नष्ट हो गई हैं। पीढ़ियों के लिए इतिहास बन गई है। अब न वे ताल बचे हैं न बावड़ियाँ। न वृक्षावलियाँ न बाग-कुंज । भले ही कुछ खेतों पर जामुन, संतरे, नींबू के बगीचे दिखते हैं किन्तु ये सब तो निजी व्यवसाय हेतु हैं। जिस प्रकार रामपुरांचल के जल संसाधन नष्ट हो गए है। वृक्ष वन समाप्त हो

    गए। वैसी ही स्थिति सर्वत्र है।

    रामपुरा का जल संसाधन एवं प्रबंधन तो पूरे मालवा में एक आदर्श उदाहरण है। अब तो यह सब एक कहानी बन गया है। जितना बचा है उसे भी यदि बचा लें। पुनजीर्वित कर लें तभी भी माना जाएगा। हमने वन, वरुण, वायु की रक्षा सुरक्षा कर वसुधा को पुनः रसवंती करने का पुण्य अर्जित कर भावी पीढ़ी का हित साध

    लिया है।

    संदर्भ ग्रंथ

    (अ) रामपुरा का इतिहास- कामदार किशनलालजी फरक्या, हस्तलिखित पोथी (ब) पाटनामा चन्द्रावत राज्य-नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ। (स) डॉ. विनय श्रीवास्तव- मालवा के दुर्ग, मंदिर एवं छत्रियाँ, पृ. 68 भाटखेड़ी के कामदार किशनलालजी फरक्या, हस्तलिखित रामपुरा का इतिहास ।

    रामपुरा तालाबों का उल्लेख है।

     2010 में राष्ट्रीय सेमीनार पी. जी. कॉलेज नीमच में पढ़ा गया, डॉ. पूरन सहगल का आलेख



  • ऐतिहासिक नगर रामपुरा के जल संसाधन तालाब : चंद्रावत राजवंश का वास्तुशिल्प एव प्रबंधन

    मुकेश राठौर MUKESH RATHOR   - रामपुरा
    ऐतिहासिक नगर रामपुरा के जल संसाधन तालाब
    आलेख   - रामपुरा


    रामपुरा
    रामपुरा राज्य चन्द्रवतों के आधीन एक समन्नुत राज्य रहा है। यह नगर अरावली की तलहटी में बसा जल संसाधनों का श्रेष्ठतम उदाहरण प्रस्तुत करता है। रामपुरा दुर्ग का निर्माण दुर्गभान ने पूर्व के कच्चे किला कोट को गिरवाकर करवाया था। दुर्गभान का राज्यकाल सर्वाधिक शांतिमय रहा और इसी काल में इस नगर की सर्वोत्मुखी उन्नति भी हुई। इनके राज्य प्रशंसा में यह दोहा बहुत प्रसिद्ध है।

    'रामपुरा दुर्गभान का देखत भागे भूख । घर-घर राणी पद्मनी, घर-घर चम्पा रुख ॥ 1

    दुर्गभान द्वारा राज्य के नव निर्माण, जलाशय और महलों का निर्माण करवाया गया। उनके पश्चात् राव सज्जनसिंह ने दो महलस, चौबुजा, किलाकोट को पूर्ण करवाया, छज्जे पर बावड़ी बनवाई, बाग लगवाए, बाक्या तालाब बनवाया यह सब वि.सं. 1378 में निर्मित हुए। दुर्गभान ने जिस निर्माण परम्परा और जल संसाधनों की परंपरा संवत् 1534 में आरम्भ की थी वह पश्चात् के राजाओं रानियों और सेठ, साहूकारों ने निरंतर रखी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय रामपुरा में 7 तालाब और 1434 कुँए बावड़ियां उपलब्ध थीं ।

    रामपुरा राज्य के पाटनामें एवं भाटखेड़ी कामदार द्वारा लिखित इतिहास (हस्तलिखित) ।

    15 वीं 16 वीं शताब्दी तक तो मालवा में खूब सारी बावड़ियाँ, तालाब, कुँए और कुँड निर्मित थे। कई तालाब तो प्राकृतिक रुप से निर्मित थे। और कुछ मानव निर्मित। दुर्गभान के अरावली पठार से आने वाले जल के बहाव को रोककर तालाब बनवाने पर ध्यान दिया। दुरगभान ने महल के पश्चिम में एक विशाल तालाब का निर्माण करवाया। 2

    • दुर्ग सागर का निर्माण सं. 1567 में पूरा हुआ। इस तालाब की पूर्व पश्चिम चौड़ाई 400 मीटर तथा लंबाई 800 मीटर है। यह एक प्राकृतिक लम्बाकार है। उत्तर दिशा में अरावली पठार से बहकर आने वाले वर्षा जल को इस तालाब में संग्रहित किया जाता था। इसके तीन और पक्के पाल घाट बनाए गए है। पाल से • लगाकर तालाब के भीतर तल तक सीढ़ियाँ बनाई गई है। चारों कोनों पर सुन्दर

    नदी-पेड़ और पर्यावरण(64)

    नक्काशीदार छत्रियाँ बनी हुई हैं। दक्षिणी व पश्चिमी घाट अधिक सुन्दर बने हुए।

    तालाब के मध्य में एक गोलाकार बारादरी बनी है। इस तालाब की गहराई आज तक नहीं नापी गई किन्तु वहाँ तैरने वाले लोगों का कहना है कि, दुरंग सागर के मध्य का तला आज तक कोई नहीं छू सका। आठ-दस परस (लगभग 56-64 फुट) से अधिक गहरा होगा।

    दक्षिणी पाल के नीचे मोखे बने हैं। जब तालाब में पानी अधिक भर जाता है तब ये मोखे खोल दिए जाते थे। तालाब का पानी बहकर एक नाले से द्वारा दूर बनी लाला तलाई में पहुँचाई जाता था। यह तालाब आज भी रामपुरा के नागरिकों के लिए एक महत्वपूर्ण जल संसाधन है।

    वाटर लिफ्टिंग का यह तालाब एक नायाब उदाहरण है। जब देखा जाता था कि, लाला तलाई पहले से ही भर चुकी है और दुरग सागर के पानी का समाव इसमें संभव नहीं होगा तब नाले को 'बांक या तालाब' 3 की ओर मोड़ दिया जाता था। बाक्या तालाब का निर्माण रावसज्जनसिंह ने 1378 वि. में करवाया। जिसमें सात लाख तेरह हजार कलदार रुपये खर्च हुए। कई बार जब पानी निथर जाता था तब उसे आवश्यकता पड़ने पर नीलिया तालाब में पहुँचाया जाता था। इसके लिए बीच में एक कुंड में रेत छनकर वह पानी नीलिया तालाब में चला जाता था।

    इस तालाब को बनवाने में उस समय तीन लाख सत्तावन हजार नौ सौ चौतीस रुपये लगे थे। बादल महल बनवाने (गोल बारादरी) में कुल एक लाख उन पच्चास हजार नौ सौ पैसठ कलदार का खर्चा आया था। इसमें पाल पर बनी छत्रियाँ का तथा शिव मंदिर का खर्चा अलग था। जिसका आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार यदि शिव मंदिर और तीनों छत्रियों का व्यय भी जोड़ा जाए तो लगभग दो लाख अनुमानित हैं तब इस तालाब पर कुल मिलाकर सात लाख सात हजार आठ सौ निन्यानवे रुपये कलदार खर्च किए गए थे। दुरगभान ने यह तालाब जन कल्याण को दृष्टि में रखकर ही बनाया था। तब रामपुरा में जल संसाधन के नाम पर यही तालाब था। इसके अलावा प्राकृतिक तालाबों में 'बाक्या तालाब' लाला तलाई तथा बंजारा तलाई भी था। जो पशुओं को पानी की सुविधा के लिए उपलब्ध थे । दुरग तालाब उन तीनों तालाबों का भी भरण करता था।

    यदि हम तालाबों के प्रकारों और उनके वास्तु शिल्प की चर्चा करे तब कुम्भा कालीन मंडन के ग्रंथ राजवल्लभ में तालाबों के विभिन्न प्रकारों और उनके शिल्प पर विस्तृत चर्चा मिलती है। 5

    नदी-पेड़ और पर्यावरण(65)

    मंडन ने छह प्रकार के तालाबों का वर्णन अपने ग्रंथ में किया है। इन छह • प्रकार के तालाबों में चौकोर, त्रिकोण, बहुकोणी, लम्बाकार, चन्द्रकार तथा महाकारा सामान्यतः महाकार, चतुष्कोणीय एवं त्रिकोणीय तालाब श्रेष्ठ माने जाते हैं।

    विश्व वल्लभ उल्लास में तालाब के लिए भूमि चयन के विषय में कहा गया है। कि 6 कि, जल आवाक को सुनिश्चित करने के पश्चात् वहाँ तालाब बनाया जाना चाहिए। उस स्थिति में यदि वास्तुशिल्प को थोड़ा बहुत तोड़ना पड़े तब भी कोई बात नहीं। दो पर्वतों के बीच अथवा पर्वत के बहाव तक पाल बाँधकर पानी का संग्रह किया जा सकता है। जहाँ जल की आवक कम हो तो वहाँ छोटे तालाब बनाना चाहिए। 7 रामपुरा के बांक्या तालाब और लाला तालाब इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं । पाल पर राजप्रासाद, मंदिर और छत्रियाँ बनाने का भी प्रावधान है।

    दुर्ग सागर उपरोक्त वास्तु शिल्प के मान से लम्बाकार किन्तु त्रिकोणीय श्रेणी का तालाब है। इसके उत्तर में अरावली पर्वत है। अरावली के बहाव का पर्याप्त जल इस तालाब में आता है। वर्षा जल का संग्रहण होने केकारण यह तालाब कभी भी खाली नहीं होता है बल्कि अधिक या पर्याप्त वर्षा होने पर इसका पानी मोखे बंद हो गए हैं। राज्यकाल में मोखों और जल को अन्यत्र ले जाने वाली नालियों, नालों की देख रेख और मरम्मत के लिए एक जागीर निकाली गई थी जिस का नाम नालो 'ठिकाना' था। इसी प्रकार दुर्ग के कोट के भीतर तालाबों तथा बाहर के तालाबों के रख-रखाव व साफ-सफाई के लिए भी जागीर निकाली गई थी जिसका नाम 'ठिकाना तलाऊ' था। ये गाँव आज भी अस्तित्व में हैं किन्तु वे अपने दायित्व से मुक्त हो चुके हैं ।

    तालाब के निर्माण में कुछ महत्वपूर्ण निर्देश भी निर्धारित है। संक्षेप में कहें तो गोचर भूमि के निकट ढलावदार भूमि, मुरम वाली भूमि तालाब के लिए उचित स्थान माना गया है। जिस दिशा में जल बहाव होने की संभावना हो उस दिशा में हड़वाड़ा (मृत पशुओं के फैकने का स्थान), श्मशान भूमि, शौच भूमि जैसे अशौच स्थल नहीं होना चाहिए। आगौर अर्थात् पानी का आवक मार्ग स्वच्छ हो। कटाव से बचाव के लिए पत्थरों को डालकर पटाई की जाए। अपरा (मोखा-निकास) सुरक्षित रहे। पाल की ऊँचाई पहले निर्धारित की जाए। नींव की चौड़ाई से ऊँचाई आधी होगी और अंतिम चौड़ाई कुल ऊँचाई से आधी होगी। नेष्ठा पाल की सुरक्षा के लिए बनाया जाता है। जिससे अतिरिक्त पानी पाल को हानि पहुँचाए बिना स्वतः जाए। यह नेष्टा पाल से एक हाथ अर्थात् तालाब का डेढ़ फुट नीचे रखा जाता है। ● आगौर अर्थात् तालाब का भीतर भाग जिसमें पानी संग्रहित रहेगा। यदि हम मोटे रूप में उपरोक्त निर्माण शिल्प कसौटी पर दुरगसागर का मूल्यांकन करें तब यह तालाब वास्तुशिल्प की कसौटियों पर खरा उतरता है। यही कारण है कि, आज भी यह तालाब अपने लगभग 500 वर्षाकाल व्यतीत कर लेने के पश्चात भी सुरक्षित हैं।

    बड़े तालाबों के अतिरिक्त जल का उपयोग छोटे तालाब बनाकर उस अतिरिक्त बहाव के पानी को अपरा या मोखों से निकालकर छोटे तालाबों में संग्रहण करना भी तालाब शिल्प की एक विधि है। इस प्रक्रिया से जल का अपव्यय नहीं हो पाता। दुरग सागर इस मान से भी खरा उतरता है। इसके अतिरिक्त जल बहाव पानी नाले द्वारा बाक्या तालाब तक ले जाया जाता था। इसी प्रकार नीलिया तालाब और बाक्या तालाब को भी परस्पर भीतर भूमिगत नालियों द्वारा जोडा गया था।

    रामपुरा दुर्ग के परकोटे (नगर कोट) के भीतर एक और तालाब जिसे जाम सागर (छोटा तालाब) कहा जाता है तालाब के वास्तु शिल्प एवं निर्धारित निर्माण निर्देश के मान से एक अद्भुत एवं उत्कृष्ट उदाहरण है।

    जाम सागर का निर्माण नगसिंह चन्द्रावत की रानी जामवंतीजी ने करवाया था। यह तालाब रामपुरा के लाल बाग में स्थित है। यह तालाब 500 मीटर 500 मीटर चौरस तीन ओर पक्के घाट-सीढ़ियाँ बनी है। दक्षिण कोने पर अत्यंत सुन्दर एवं विशाल बादल महल बना था। जिसके खण्डहर आज भी देखे जा सकते हैं । तालाब के मध्य में एक अष्ठ स्तम्भ वाली बारादरी बनी है। पाल के चारों कोनों पर सुन्दर मेहराबदार छत्रियाँ सुशोभित हैं। जामसागर के दक्षिण पूर्वी कोने पर सुन्दर नक्काशीदार भव्य द्वार बना है जो बादल महल का प्रवेश द्वार था। बादल महल से तालाब में प्रवेश के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। यह तालाब वास्तु कला का उत्कृष्ट नमूना है। आज भले ही यह विघ्नकारी तथा राजनैतिकदुष्ट तत्वों द्वारा उपेक्षित तथा खंडित कर दिया गया है। फिर भी यह नगर केमध्य निर्मित तालाब चन्द्रावत राजाओं की ऐतिहासिक विरासत के रूप में आज भी अपनी यश गाथा स्वयं बखान कर रहा । जाम सागर में चतुर्दिक सीढ़ियाँ तो हैं ही इसके तल भाग में भी फर्शी लगी हैं। से हम चाहें तो विशाल कुण्ड भी कह सकते हैं किन्तु कुण्ड के आदर्श मानक के न से यह बहुत बड़ा है। इसलिए इसे तालाब कहना ही उचित है।

    जाम सागर में पानी का भरण अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है। अरावली हार से बहकर आने वाली पानी को 'कंथार नाले' की ओर ले जाया जाता था। नके लिए कई छोटे नाले बनवाए गए थे। कंथार नाला पानी को बहाकर 'रतन नाई' में लाता था। रतन तलाई एक कुंड के समान किन्तु प्राकृतिक तलाई थी।

     यह तलाई राज परिवार के लिए पर्यटन एवं वनश्री का आनंद लेने के लिए बनवाई गई थी। राव रतन ने इसकी मरम्मत करवाकर इसे सौंदर्य प्रदान किया इस कारण बाद में इसे रतन तलाई कहा जाने लगा। वस्तुतः इसका निर्माण जामवंती ने मुख्य तालाब के जल प्रबंधन के लिए करवाया था। रतन तलाई से पानी पहले अपरों द्वारा तथा फिर नीचे के माखों द्वारा एक पक्की नाली के माध्यम से बड़े पक्के कुण्ड में लाया जाता है। बडेकुंड से पानी दो और श्रृंखलाबद्ध कुंडों में एकत्र किया जाता था। तीनों कुंडों में बजरी (रेत) डाली जाती थी। जिससे पानी छन-छनकर आगे बढ़ता रहे। इसके बाद पक्की नालियों द्वारा कुंडों का पानी जाम तालाब में लाया जाता था। प्रत्येक वर्षा काल के पश्चात् कुंडों की सफाई की जाती थी।

    तालाब में भी जल स्रोत थे। उसमें कुँए या बावड़ियों की भाँति जल स्रोतों से भी जल भरण होता था। इस प्रकार वर्षा जल का छनाव होकर जाम सागर लबालब भर जाता था। यह तालाब उस काल में स्वच्छ जल का एकमात्र सुलभ साधन था। समूचा नगर इस तालाब से पानी पीता था। एक विशाल बावड़ी की तरह था यह जाम सागर। अब इसके जलाशय संसाधन के पक्के भवनों ने ध्वस्त कर दिया है इस कारण यह जाम सागर जल स्रोतों से विहीन होकर एक खंडहर मात्र रह गया है। रामपुरा में बारह बावड़ियाँ बनी हुई हैं। जिनका निर्माण जन कल्याण के लिए चन्द्रावत राजाओं और सेठ साहूकारों ने करवाया था। जो आज भी अस्तित्व में है। 9 कुछ गाँधीसागर के जल विस्तार में डूब गई हैं। इनके सास-बहू की बावड़ी और पातशाल की बावड़ी शिल्प के मान से दर्शनीय है। जाम सागर के निर्माण में उस काल में छः लाख इक्कीस हजार नौ सौ निव्यासी कलदार रुपये खर्च हुए। 10

    नीलिया तालाब - यह तालाब रामपुरा नगर कोट में ही (मोहल्ले) में स्थित है। इसके उत्तर में अरावली पठार है। यह तालाब भी दुर कुशालपुरा क्षेत्र सागर का समकालीन है। इसका निर्माण अचलदास चन्द्रावत की रानी जाजकुंवर सिरोही ने करवाया था । 11

    इसका भराव भी दुरगसागर की तरह अरावली से बहकर आने वाले वर्ष जल, ढलान के झरनों से इसका भरण होता था। बड़े तालाब से दुरग सागर का एक नाला भी इसका भरण करता था। राजमहल के पश्चिम में दुरग सागर है तो पूर्व में यह जाज कुंवर सागर ।

    सती हुई। तालाब का काम अधूरा रह गया। वना यह तालाब दुरंग सागर से भी अचलसिंह भोपाल युद्ध में शहीद हो गए। रानी जाजकुंवर (जामवंती पहले बन चुका होता। बाद में दुरगभान ने इसे पूरा किया। दुरगसागर की भाँति  यह तालाब भी रामपुरा किलाकोट के भीतर जल संसाधन का अत्यंत सुलभ जलाशय था । दुरंग सागर एवं यह नीलिया तालाब मिलाकर राज्य दुर्ग की जलपूर्ति में सक्षम थे।

    इस तालाब की भी भराई छनकर आने वाले पानी द्वारा होती थी। इसी की शिल्प से प्रेरणा लेकर जामवंती ने जाम सागर बनवाया। इसका जल नीलाभ वर्ण का तथा स्वच्छ रहता था। इस कारण लोक में इसका नाम नील सागर चर्चित हो गया। पूर्व में यह तालाब चारों ओर से खूब खुली भूमि में था। बाद में इसके चतुर्दिक भवनों के निर्माण होते चले गए और यह तालाब चारों ओर से घिर गया और यह तालाब भी जाम सागर की तरह उपेक्षित होता चला गया। आज भी इसमें जल भरण तो होता है किन्तु इसका पानी नीलाभ व स्वच्छ नहीं रहा। इसमें मोहल्ले का कचरा और काई जम चुकी है। इस नीलिया तालाब को दुरगभाण ने दुरंग सागर के साथ-साथ पूर्ण किया। इस पर कुल ग्यारह लाख बावन हजार सात सौ बहत्तर कलदर खर्च आया। 13

    गोलाकार तालाबों में ढँढेरी चारभुजा का तालाब और महागढ़ का तालाब माना जा सकता है। पड़दां का पुसकरिया तालाब लाखा बंजारा ने बनवाया था। 1 3 यह भी गोलाकार श्रेणी का विशाल तालाब था। पीपल्यारावजी में एक बड़ा तालाब था। ये चारों तालाब अब कृषि भूमि में बदल चुके हैं। मनासा का तालाब भील मीणों के काल के हैं । चन्द्रावत काल से पूर्व का है। यह भी गोलाकार श्रेणी का तालाब है। यह तालाब आज भी कायम है। यह पूरा तालाब सहित लोक श्रम द्वारा बनाया गया जो एक उदाहरण है।

    इस तालाब में साठ एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई की जाती है। चरागाह भूमि के लगभग एक हजार पशु प्रतिदिन यहाँ पानी पीते हैं तथा नगर के अनेक लोग यहाँ स्नान करते हैं इस तालाब का प्रबंधन जनपद पंचायत मनासा करती है।

    बेसला का तालाब - यह तालाब रामपुरा से 12 किलोमीटर दूरी पर सड़क के किनारे स्थित है। यह पूर्णरुपेण प्राकृतिक तालाब है। पूर्व में घाट बना हैं। शेष तीन दिशाओं से इसका वर्षाजल से भरण होता है। यह तालाब लगभग आठ दस एकड़ तक विस्तारित है। पूर्व दिशा में पानी के निकास हेतु मोखे बने हैं जिन्हें कलों द्वारा बंद किया व खोला जाता है। इस तालाब से चालीस से पचास एकड़ भूमि की सिंचाई की जाती है। दूर-दूर के पशु यहाँ पर आकर पानी पीते हैं। यह तालाब एक समय होल्करों के प्रबंधन में था। इसका निर्माण रामपुरा के चन्द्रावत राजाओं ने चराहगारों के पशुओं पीने एवं प्रजा की जल व्यवस्था के लिए करवाया

     

    था। वर्तमान में इसका प्रबंधन स्थानीय ग्राम पंचायत करती है। इस तालाब में सिंगाड़ों की खेती की जाती है। इस कारण 'सिंगाड़ा तालाब' भी कहा जाता है। दुधलाई का तालाब - यह तालाब रामपुरा से आठ किलोमीटर मनासा की

    ओर स्थित है। (यह चन्द्रावत कालीन तालाब है) दुधलाई ठिकाना चन्द्रावत राज्य के राज चारणों का जागीरी ठिकाना रहा है। चारण महल के दक्षिण में यह तालाब बना हुआ है। यह प्राकृतिक तालाब है। इसका उपयोग चरागाह के पशुओं तथा स्नानादि के लिए होता है। यह प्राकृतिक तालाब है। पूर्व की और पक्का घाट बना है। प्रबंधन की लापरवाही के कारण यह तालाब अपना अस्तित्व खोता जा रहा है। निर्मल जल के कारण इसे दूधतलाई कहा जाता था। यही नाम कालांतर में 'दुधलाई ' हो गया।

    इन चौदह मुख्य तालाबों के अलावा भी ग्यारह तालाब इस अंचल में और भी है। छोटी तसलैया तो कई हैं। वस्तुतः रामपुरा राज्य अंचल में जल संसाधन अत्यंत गहन रूप से प्रबंधित किया गया था। तालाबों के अलावा इस अंचल में लगभग 50 बावड़ियाँ तथा अनेक कुएँ भी निर्मित करवाए गए थे। मध्यकाल के ये जल संसाधन आज भी अपनी गौरवशाली ऐतिहासिक विरासत के रूप में हमारी अमानत हैं जिनकी सुरक्षा, पुनजीर्विन, पुनर्व्यवस्था एवं प्रबंधन करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। ये समस्त मध्यकालीन जल संसाधन हमारे प्रेरणा स्रोत है।

    तालाबों का महत्व जहाँ कृषि भूमि सिंचन, पशु पालन एवं गाँव-ठिकानों के निवासियों की जल सुविधा के लिए था वहीं इनके कारण आसपास के कुओं - बावड़ियों का जल स्तर भी कायम रहता था। जहाँ-जहाँ भी तालाबों के अस्तित्व को समाप्त कर दिया गया है। वहाँ कुँए-बावड़ियों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है। ये तालाब हमारी संस्कृति के अंग है। हमने इन्हें देवता की तरह पूजा है।

    हमारे अनेक धार्मिक अनुष्ठान सरोवरों के तटों पर ही पूर्ण होते हैं। तालाबों को ही क्यों हमने तो इनके शिल्पकारों का भी सदा सम्मान किया है। कार्यारंभ से पूर्व इन शिल्पकारों की भी हमने पूजा की है। दुसाध, नौनिया, गौड़, परधान, कोल, ढीमर, धीवर, भोई, कोरी, ओढ़ जैसी तालाब खनन एवं निर्माण शिल्प की प्रवीण जातियाँ रही है। इन्हें समाज ने सदा संरक्षण दिया है। ये जातियाँ भी सरोवरों की भाँति हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग मानी जाती रही है ।

    रामपुरा राज्यांचल के इन जल स्रोतों का वर्णन इसलिए महत्वपूर्ण है कि, हमें यह ज्ञात रहें कि कितने जतन से लोक कल्याण हितार्थ इन जलस्रोतों का निर्माण करवाया गया था। इनके इर्द-गिर्द फलदार व फूलदार तथा छायादार बाग

     कुंजों को लगवाया गया था। चतुर्दिक लहलहाती ही हरियाली की रूप छवियाँ सुशोभित थी। अब ये सब नष्ट हो गई हैं। पीढ़ियों के लिए इतिहास बन गई है। अब न वे ताल बचे हैं न बावड़ियाँ। न वृक्षावलियाँ न बाग-कुंज । भले ही कुछ खेतों पर जामुन, संतरे, नींबू के बगीचे दिखते हैं किन्तु ये सब तो निजी व्यवसाय हेतु हैं। जिस प्रकार रामपुरांचल के जल संसाधन नष्ट हो गए है। वृक्ष वन समाप्त हो

    गए। वैसी ही स्थिति सर्वत्र है।

    रामपुरा का जल संसाधन एवं प्रबंधन तो पूरे मालवा में एक आदर्श उदाहरण है। अब तो यह सब एक कहानी बन गया है। जितना बचा है उसे भी यदि बचा लें। पुनजीर्वित कर लें तभी भी माना जाएगा। हमने वन, वरुण, वायु की रक्षा सुरक्षा कर वसुधा को पुनः रसवंती करने का पुण्य अर्जित कर भावी पीढ़ी का हित साध

    लिया है।

    संदर्भ ग्रंथ

    (अ) रामपुरा का इतिहास- कामदार किशनलालजी फरक्या, हस्तलिखित पोथी (ब) पाटनामा चन्द्रावत राज्य-नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ। (स) डॉ. विनय श्रीवास्तव- मालवा के दुर्ग, मंदिर एवं छत्रियाँ, पृ. 68 भाटखेड़ी के कामदार किशनलालजी फरक्या, हस्तलिखित रामपुरा का इतिहास ।

    रामपुरा तालाबों का उल्लेख है।

     2010 में राष्ट्रीय सेमीनार पी. जी. कॉलेज नीमच में पढ़ा गया, डॉ. पूरन सहगल का आलेख

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