• एक विचार यह भी : शादियाँ तब और अब

    NAI VIDHA   - नीमच
    एक विचार यह भी
    आलेख   - नीमच
  • ओमप्रकाश चौधरी , नीमच  9754872251: पिछले दिनों एक शादी में सुखद अनुभव यह था कि दूल्हा दुल्हन  स्टेज पर समय से कुछ देर भले हुई हो नमूदार हो गए थे |  वरना आजकल शादी में आये अधिकांश लोगों को दूल्हा दुल्हन के दर्शन शायद ही  नसीब होते हैं  | बड़ा खर्च  करके बनाया गया खाली   स्टेज आमंत्रितों का मुंह चिढाता  रहता है और उस पर लगे सिंहासन पर बच्चे धमाचौकड़ी मचाते रहते हैं | स्टेज पर दूल्हा दुल्हन तब पंहुचते हैं जब अधिकांश निमंत्रित लोग भोजन उदरस्थ कर जा चुके होते हैं | आखिर में जंगल में मोर नाचा  की स्टाइल में दूल्हा दुल्हन गिने चुने रिश्तेदारों के बीच वरमाला और फोटो सेशन की रस्म अदायगी निभाते हैं  |  यहाँ  दूल्हा दुल्हन के स्टेज पर पंहुचते ही एक एंकर मंच पर आई उसने सभी का स्वागत किया और दूल्हा दुल्हन को वरमाला के लिए निर्देशित करने लगी | मंच पर उन तीन के अलावा कोई नही था | वरना होता यह है कि वरमाला के समय मंच दोस्तों से भर जाता है और दूल्हा दुल्हन को ऊपर नीचे उठाने की प्रतियोगिता शुरू हो जाती है जिससे वरमाला की रस्म हास्यास्पद बनकर रह जाती है  | जैसे ही एंकर ने दुल्हन को वरमाला के लिए निर्देशित किया मुझे पुराना ज़माना  याद आ गया  जब फोटोग्राफर इस भूमिका में हुआ करता था और एन वरमाला के समय उसके कैमरे  की रील खत्म हो जाती थी | जब तक वह रील डाल नही लेता वरमाला रुकी रहती थी | लेकिन अब इवेंट मेनेजमेंट का जमाना है इसमें फोटोग्राफर की जगह एंकर ने ले ली है | पर फोटोग्राफर आज भी स्टेज पर दूल्हा दुल्हन और आने वालों को निर्देशित करता है  फोटो खिचवाने के लिए |
        खैर आगे बढ़ते हैं याद कीजिए पुरानी  शादियाँ जिनमे एक घर में शादी पूरे मोहल्ले का समारोह होता था | घरों से ही शादियाँ हो जाती थी और मेहमान आस पास के सभी घरों में सुविधानुसार रुकते थे जिनका ध्यान रखना मोहल्ले के लोग अपनी जिम्मेदारी समझते थे | फिर शादियों में धर्मशालाओं की आमद हुई | उसके बाद तो यह सिलसिला जो चला तो अब बात रिसोर्ट और होटल तक आ पंहुची है | पहले हर मेहमान सुविधा असुविधा का ध्यान रखे बिना ख़ुशी ख़ुशी शादी में शामिल होता था | रिश्तेदार ,दोस्त ,परिचित दिन रात लगे रहते थे | हालत यहाँ तक हो जाती थी कुछ निकटतम मित्रों और रिश्तेदारों को कपडे बदलने तक की फुर्सत नही होती थी | परन्तु फिर भी सब खुश रहते थे कि चलो शादी निर्विघ्न सम्पन्न हो गई | समय बदला आज शादियाँ जेब ढीली करने का महोत्सव बन कर रह गई हैं | जिसकी जितनी  क्षमता शादी उतना बड़ा उत्सव | अब तो हाल यह है कि शादी में आये हर मेहमान को सारी सुविधाएँ यहाँ तक कि होटल या रिसोर्ट में अलग कमरा चाहिए ही | शादी की रस्में होती रहती हैं और आधे मेहमान अपने कमरों में ही आराम फरमाते रहते हैं वे तब ही बाहर निकलते हैं जब उन्हें नाश्ते, खाने के लिए आने की याद दिलाई जाय या रस्म विशेष में उनकी उपस्थिति जरुरी हो |
        एक समय था बारात सबसे बड़ा टेंशन होती थी | बारात आकर सकुशल चली जाये तो लड़की वाला समझता था गढ़ जीत लिया | गर्म चाय को भी बाराती ठंडी बताने लगते इस चक्कर में चाहे उनकी ऊँगली ही क्यों न जल जाए  | ऐसी ऐसी फरमाइशें होती थी कि लड़की वाले की जान  सांसत में आ जाती थी | खैर अब तो बारातें आना ही बीते जमाने की बात हो गई | आजकल  बहुत कम ऐसे अवसर आते है जब बारात जाती है और जाती भी है तो  बाराती आज्ञाकारी बच्चों की तरह ही पेश आते  है | एक ज़माना था की मेजबान दरवाजे पर स्वागत के लिए खड़ा हुआ मिलता था | बारात का भोजन सबसे पहले होता था और उन्हें भोजन के लिए निमंत्रित न किया जाए तब तक वे भोजन के लिए आते भी नही थे | पर आज जबसे खड़ खाने या गिद्ध भोज का प्रचलन बढ़ा है   ये सारी परम्पराएं अतीत की बात हो गई | अब तो बारात का औपचारिक स्वागत हुआ उसके बाद बाराती की मर्जी खाना खाए या न खाए | यहाँ तक की यह भी देखने को मिल जाता है कि खाने के तो पहाड़ खड़े हैं पर आमंत्रितों को भोजन करने का अनुरोध  करने वाला कोई नही | मेजबान अब अक्सर स्वागत द्वार पर मिलता ही नही | मेहमान अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए या भोजन के बाद लिफाफा देने के लिए उसे खुले मैदान में ढूंढता रहता है | आज का मेजबान अक्सर स्टेज पर ही पाया जाता है आगंतुकों के साथ फोटो खिचवाते हुए | 
        कभी जमान था शादी ब्याह में फूफाजी और दामाद का विशेष ख्याल रखा जाता था कि कहीं वे रूठ न जाए | लेकिन आज की शादियों में यह रूठने मनाने का खेल खत्म ही हो गया | पहले तो कोई रूठता नही और यदि आप रूठे हो तो आपकी बला  से ,एकाध बार मनाने की रस्म अदायगी के बाद मेजबान अपने दूसरे कामों या मेहमानों की औपचारिक आवभगत में व्यस्त हो जाता है | शादी ब्याह में  मंगल गीत से लेकर मधुर गालियों  का गायन अब केवल ग्रामीण शादियों में रह गया है | छोटे से बड़े शहरों तक इसकी जगह अब कान फोडू डी जे और फ़िल्मी संगीत  ने ले ली है | अब तुलसीदास जी द्वारा राम जानकी विवाह में किया गया यह चित्रण “जेंवत देहि मधुर धुनि गारी | लै लै नाम पुरुष अरु नारी || समय सुहावनी गारी विराजा | हँसत राउ  सुनि सहित समाजा |” केवल यादों में रह गया है | कुल मिलाकर विवाह समारोह अब पारिवारिक सहभागिता और हंसी ख़ुशी का अवसर न रहकर औपचारिकता बनते जा रहे हैं जो हमारी संस्कृति और परम्पराओं के लिए ठीक नही है |



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    NAI VIDHA   - नीमच
    एक विचार यह भी
    आलेख   - नीमच

    ओमप्रकाश चौधरी , नीमच  9754872251: पिछले दिनों एक शादी में सुखद अनुभव यह था कि दूल्हा दुल्हन  स्टेज पर समय से कुछ देर भले हुई हो नमूदार हो गए थे |  वरना आजकल शादी में आये अधिकांश लोगों को दूल्हा दुल्हन के दर्शन शायद ही  नसीब होते हैं  | बड़ा खर्च  करके बनाया गया खाली   स्टेज आमंत्रितों का मुंह चिढाता  रहता है और उस पर लगे सिंहासन पर बच्चे धमाचौकड़ी मचाते रहते हैं | स्टेज पर दूल्हा दुल्हन तब पंहुचते हैं जब अधिकांश निमंत्रित लोग भोजन उदरस्थ कर जा चुके होते हैं | आखिर में जंगल में मोर नाचा  की स्टाइल में दूल्हा दुल्हन गिने चुने रिश्तेदारों के बीच वरमाला और फोटो सेशन की रस्म अदायगी निभाते हैं  |  यहाँ  दूल्हा दुल्हन के स्टेज पर पंहुचते ही एक एंकर मंच पर आई उसने सभी का स्वागत किया और दूल्हा दुल्हन को वरमाला के लिए निर्देशित करने लगी | मंच पर उन तीन के अलावा कोई नही था | वरना होता यह है कि वरमाला के समय मंच दोस्तों से भर जाता है और दूल्हा दुल्हन को ऊपर नीचे उठाने की प्रतियोगिता शुरू हो जाती है जिससे वरमाला की रस्म हास्यास्पद बनकर रह जाती है  | जैसे ही एंकर ने दुल्हन को वरमाला के लिए निर्देशित किया मुझे पुराना ज़माना  याद आ गया  जब फोटोग्राफर इस भूमिका में हुआ करता था और एन वरमाला के समय उसके कैमरे  की रील खत्म हो जाती थी | जब तक वह रील डाल नही लेता वरमाला रुकी रहती थी | लेकिन अब इवेंट मेनेजमेंट का जमाना है इसमें फोटोग्राफर की जगह एंकर ने ले ली है | पर फोटोग्राफर आज भी स्टेज पर दूल्हा दुल्हन और आने वालों को निर्देशित करता है  फोटो खिचवाने के लिए |
        खैर आगे बढ़ते हैं याद कीजिए पुरानी  शादियाँ जिनमे एक घर में शादी पूरे मोहल्ले का समारोह होता था | घरों से ही शादियाँ हो जाती थी और मेहमान आस पास के सभी घरों में सुविधानुसार रुकते थे जिनका ध्यान रखना मोहल्ले के लोग अपनी जिम्मेदारी समझते थे | फिर शादियों में धर्मशालाओं की आमद हुई | उसके बाद तो यह सिलसिला जो चला तो अब बात रिसोर्ट और होटल तक आ पंहुची है | पहले हर मेहमान सुविधा असुविधा का ध्यान रखे बिना ख़ुशी ख़ुशी शादी में शामिल होता था | रिश्तेदार ,दोस्त ,परिचित दिन रात लगे रहते थे | हालत यहाँ तक हो जाती थी कुछ निकटतम मित्रों और रिश्तेदारों को कपडे बदलने तक की फुर्सत नही होती थी | परन्तु फिर भी सब खुश रहते थे कि चलो शादी निर्विघ्न सम्पन्न हो गई | समय बदला आज शादियाँ जेब ढीली करने का महोत्सव बन कर रह गई हैं | जिसकी जितनी  क्षमता शादी उतना बड़ा उत्सव | अब तो हाल यह है कि शादी में आये हर मेहमान को सारी सुविधाएँ यहाँ तक कि होटल या रिसोर्ट में अलग कमरा चाहिए ही | शादी की रस्में होती रहती हैं और आधे मेहमान अपने कमरों में ही आराम फरमाते रहते हैं वे तब ही बाहर निकलते हैं जब उन्हें नाश्ते, खाने के लिए आने की याद दिलाई जाय या रस्म विशेष में उनकी उपस्थिति जरुरी हो |
        एक समय था बारात सबसे बड़ा टेंशन होती थी | बारात आकर सकुशल चली जाये तो लड़की वाला समझता था गढ़ जीत लिया | गर्म चाय को भी बाराती ठंडी बताने लगते इस चक्कर में चाहे उनकी ऊँगली ही क्यों न जल जाए  | ऐसी ऐसी फरमाइशें होती थी कि लड़की वाले की जान  सांसत में आ जाती थी | खैर अब तो बारातें आना ही बीते जमाने की बात हो गई | आजकल  बहुत कम ऐसे अवसर आते है जब बारात जाती है और जाती भी है तो  बाराती आज्ञाकारी बच्चों की तरह ही पेश आते  है | एक ज़माना था की मेजबान दरवाजे पर स्वागत के लिए खड़ा हुआ मिलता था | बारात का भोजन सबसे पहले होता था और उन्हें भोजन के लिए निमंत्रित न किया जाए तब तक वे भोजन के लिए आते भी नही थे | पर आज जबसे खड़ खाने या गिद्ध भोज का प्रचलन बढ़ा है   ये सारी परम्पराएं अतीत की बात हो गई | अब तो बारात का औपचारिक स्वागत हुआ उसके बाद बाराती की मर्जी खाना खाए या न खाए | यहाँ तक की यह भी देखने को मिल जाता है कि खाने के तो पहाड़ खड़े हैं पर आमंत्रितों को भोजन करने का अनुरोध  करने वाला कोई नही | मेजबान अब अक्सर स्वागत द्वार पर मिलता ही नही | मेहमान अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए या भोजन के बाद लिफाफा देने के लिए उसे खुले मैदान में ढूंढता रहता है | आज का मेजबान अक्सर स्टेज पर ही पाया जाता है आगंतुकों के साथ फोटो खिचवाते हुए | 
        कभी जमान था शादी ब्याह में फूफाजी और दामाद का विशेष ख्याल रखा जाता था कि कहीं वे रूठ न जाए | लेकिन आज की शादियों में यह रूठने मनाने का खेल खत्म ही हो गया | पहले तो कोई रूठता नही और यदि आप रूठे हो तो आपकी बला  से ,एकाध बार मनाने की रस्म अदायगी के बाद मेजबान अपने दूसरे कामों या मेहमानों की औपचारिक आवभगत में व्यस्त हो जाता है | शादी ब्याह में  मंगल गीत से लेकर मधुर गालियों  का गायन अब केवल ग्रामीण शादियों में रह गया है | छोटे से बड़े शहरों तक इसकी जगह अब कान फोडू डी जे और फ़िल्मी संगीत  ने ले ली है | अब तुलसीदास जी द्वारा राम जानकी विवाह में किया गया यह चित्रण “जेंवत देहि मधुर धुनि गारी | लै लै नाम पुरुष अरु नारी || समय सुहावनी गारी विराजा | हँसत राउ  सुनि सहित समाजा |” केवल यादों में रह गया है | कुल मिलाकर विवाह समारोह अब पारिवारिक सहभागिता और हंसी ख़ुशी का अवसर न रहकर औपचारिकता बनते जा रहे हैं जो हमारी संस्कृति और परम्पराओं के लिए ठीक नही है |

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