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लोकसभा चुनाव का प्रचार जोर शोर से चल रहा है। वर्ष 2023 विधानसभा चुनाव के दौरान हिंदी भाषी राज्यों में विजयी पताका फहराने के बाद सत्ताधारी दल भाजपा और उसके गठबंधन एनडीए में शामिल दलों के नेता उत्साह से लबरेज हैं। वहीं प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस उसके सहयोगी दलों के साथ जद्दोजहद कर रही है। हर बार चुनावों की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दलों में ‘आयाराम-गयाराम’ का खेल शुरु हो जाता है। विभिन्न दलों के प्रभावी नेताओं को अपने दल में शामिल कराने की होड़ मची है, कभी कोई एक दल बाजी मारता हैं तो कभी कोई दूसरा दल। सभी सेलिब्रिटी आखिर सत्ता की तरफ ही क्यों भागते हैं? पूर्व न्यायाधीश हो, पूर्व अधिकारी हो, अभिनेता हो या खिलाड़ी राजनीति में अपना भविष्य आजमाते रहे हैं। अगर भाजपा की विचारधारा कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके नेताओं को इतनी अच्छी लगती है तो सवाल यह भी है कि पिछले पांच साल तक वे कांग्रेस में क्यों रहे? उल्लेखनीय है कि इनदिनों भाजपा में जो नीमच-मंदसौर जिलों में भी कांग्रेस के नेता शामिल हो रहे हैं। क्या यह भाजपा के निश्चित जीत की संभावनाओं का परिणाम है या केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के डर का परिणाम है। निश्चिय ही यह स्थिति किसी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये शुभ नहीं कही जा सकती। देश में लंबे समय से चुनाव सुधारों पर चर्चा चल रही है लेकिन चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि दलबदल का बढ़ता दौर कैसे रूके। राजनीति एवं राजनेताओं में नीति एवं सिद्धान्तों की बात प्रमुख होनी चाहिए, लेकिन ऐसा न होना लोकतंत्र की बड़ी विसंगति है। देखा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस के वफादार कहे जाने वाले नेताओं का पलायन हो रहा है। अब तक जिन नेताओं ने कांग्रेस को बाय बाय कहा है उन सभी ने भाजपा ज्वाइन करने के तुरंत बाद कांग्रेस के मुद्दाविहीन होने, मोदी के विकसित भारत के एजेंडे, राहुल गांधी की अपरिपक्व राजनीति एवं कांग्रेस की सनातन-विरोधी होने को पार्टी से पलायन का कारण बताया है। कुछ भी कहे, यह राजनीति में अवसरवाद का उदाहरण है, इस तरह का बढ़ता दौर चिंताजनक है। भारत की राजनीति में दलबदल की विसंगति एवं विडम्बना आजादी के बाद से लगातार देखने को मिलती रही है। पिछले साढ़े सात दशक के भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पराभव के अक्स गाहे-बगाहे उजागर होते रहे हैं। दलबदल के बढ़ते दौर ने अनेक सवाल खड़े किये हैं। कल तक विपक्ष में जो नेता दागी होते थे, सतारूढ़ दल में शामिल होने के बाद ऐसा क्या हो जाता है कि उनके दाग दाग नहीं रहते। राजनीति में निष्ठाएं बदलने की स्थितियां आम नागरिकों को उद्वेलित कर रही हैं कि आखिर ऐसा क्या हो जाता है कि दागी नेता सत्ता की धारा में डुबकी लगाकर दूध का धुला घोषित हो जाता है। राजनीति में सब कुछ जायज है वाली सोच एवं स्वार्थ की नीति दुर्भाग्यपूर्ण है। चुनाव का समय हर राजनेता के लिये अपने हित एवं स्वार्थ को चुनने का समय होता है, लेकिन उनके सामने लोकतंत्र के हिताहित का प्रश्न बहुत गौण हो जाता है। चुनावों में आचार संहिता के चलते कई प्रतिबंध लागू हो जाते हैं, लेकिन राजनीति में में दल-बदल पर नियंत्रण का कहीं कोई प्रावधान ही नहीं है, जबकि यह लोकतंत्र की जीवंतता एवं पवित्रता के लिये प्राथमिकता होनी चाहिए। सत्ता का स्वाद ही ऐसा होता है कि कोई भी राजनेता इससे अछूता नहीं रहता। इसीलिए आजकल दल बदलने का दौर खूब हो रहा है। यह बात दूसरी है कि ज्यादातर नेताओं में भाजपा का दामन थामने की होड़ मची है। एक दिन पहले भाजपा पर निशाना साधने एवं जीभर कर कोसने वाले नेताओं को एकाएक भाजपा इतनी अच्छी क्यों लगने लगती है? भाजपा को भी सोचना चाहिए कि आखिर ये अवसरवादी नेता जब भी उनके अनुकूल नहीं हुआ तो उसे भी बाय-बाय कर देंगे? दलों को विचार करना ही होगा कि राजनीति के मायने चुनाव जीतना भर ही है या फिर वे विचारधारा के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं को मौका देकर राजनीति को स्वस्थ रखना चाहते हैं। लोकतंत्र में जनता की आवाज की ठेकेदारी राजनैतिक दलों एवं नेताओं ने ले रखी है, पर ईमानदारी से यह दायित्व कोई भी दल एवं नेता सही रूप में नहीं निभा रहा है। ”सारे ही दल एवं नेता एक जैसे हैं“ यह सुगबुगाहट जनता के बीच बिना कान लगाए भी स्पष्ट सुनाई देती है। स्वस्थ राजनीति में ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो निष्पक्ष हो, ईमानदार हो, सक्षम हो, सुदृढ़ हो, स्पष्ट एवं सर्वजनहिताय का लक्ष्य लेकर चलने वाला हो। लेकिन स्वार्थी, अक्षम, दागी नेताओं को किसी भी दल में जगह देना यह उस दल की मजबूती एवं स्वस्थ राजनीति पर एक बदनुमा दाग है। विडम्बना है कि लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं, मस्तिष्क नहीं। इसका खामियाजा हमारा लोकतंत्र भुगतता है, भुगतता रहा है। ज्यादा सिर आ रहे हैं, मस्तिष्क नहीं। जाति, धर्म, स्वार्थ और वर्ग के मुखौटे ज्यादा हैं, मनुष्यता के चेहरे कम। तभी राजनीति अवसरवादिता का अखाड़ा बनती जा रही है।
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लोकसभा चुनाव का प्रचार जोर शोर से चल रहा है। वर्ष 2023 विधानसभा चुनाव के दौरान हिंदी भाषी राज्यों में विजयी पताका फहराने के बाद सत्ताधारी दल भाजपा और उसके गठबंधन एनडीए में शामिल दलों के नेता उत्साह से लबरेज हैं। वहीं प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस उसके सहयोगी दलों के साथ जद्दोजहद कर रही है। हर बार चुनावों की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दलों में ‘आयाराम-गयाराम’ का खेल शुरु हो जाता है। विभिन्न दलों के प्रभावी नेताओं को अपने दल में शामिल कराने की होड़ मची है, कभी कोई एक दल बाजी मारता हैं तो कभी कोई दूसरा दल। सभी सेलिब्रिटी आखिर सत्ता की तरफ ही क्यों भागते हैं? पूर्व न्यायाधीश हो, पूर्व अधिकारी हो, अभिनेता हो या खिलाड़ी राजनीति में अपना भविष्य आजमाते रहे हैं। अगर भाजपा की विचारधारा कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके नेताओं को इतनी अच्छी लगती है तो सवाल यह भी है कि पिछले पांच साल तक वे कांग्रेस में क्यों रहे? उल्लेखनीय है कि इनदिनों भाजपा में जो नीमच-मंदसौर जिलों में भी कांग्रेस के नेता शामिल हो रहे हैं। क्या यह भाजपा के निश्चित जीत की संभावनाओं का परिणाम है या केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के डर का परिणाम है। निश्चिय ही यह स्थिति किसी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये शुभ नहीं कही जा सकती। देश में लंबे समय से चुनाव सुधारों पर चर्चा चल रही है लेकिन चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि दलबदल का बढ़ता दौर कैसे रूके। राजनीति एवं राजनेताओं में नीति एवं सिद्धान्तों की बात प्रमुख होनी चाहिए, लेकिन ऐसा न होना लोकतंत्र की बड़ी विसंगति है। देखा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस के वफादार कहे जाने वाले नेताओं का पलायन हो रहा है। अब तक जिन नेताओं ने कांग्रेस को बाय बाय कहा है उन सभी ने भाजपा ज्वाइन करने के तुरंत बाद कांग्रेस के मुद्दाविहीन होने, मोदी के विकसित भारत के एजेंडे, राहुल गांधी की अपरिपक्व राजनीति एवं कांग्रेस की सनातन-विरोधी होने को पार्टी से पलायन का कारण बताया है। कुछ भी कहे, यह राजनीति में अवसरवाद का उदाहरण है, इस तरह का बढ़ता दौर चिंताजनक है। भारत की राजनीति में दलबदल की विसंगति एवं विडम्बना आजादी के बाद से लगातार देखने को मिलती रही है। पिछले साढ़े सात दशक के भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पराभव के अक्स गाहे-बगाहे उजागर होते रहे हैं। दलबदल के बढ़ते दौर ने अनेक सवाल खड़े किये हैं। कल तक विपक्ष में जो नेता दागी होते थे, सतारूढ़ दल में शामिल होने के बाद ऐसा क्या हो जाता है कि उनके दाग दाग नहीं रहते। राजनीति में निष्ठाएं बदलने की स्थितियां आम नागरिकों को उद्वेलित कर रही हैं कि आखिर ऐसा क्या हो जाता है कि दागी नेता सत्ता की धारा में डुबकी लगाकर दूध का धुला घोषित हो जाता है। राजनीति में सब कुछ जायज है वाली सोच एवं स्वार्थ की नीति दुर्भाग्यपूर्ण है। चुनाव का समय हर राजनेता के लिये अपने हित एवं स्वार्थ को चुनने का समय होता है, लेकिन उनके सामने लोकतंत्र के हिताहित का प्रश्न बहुत गौण हो जाता है। चुनावों में आचार संहिता के चलते कई प्रतिबंध लागू हो जाते हैं, लेकिन राजनीति में में दल-बदल पर नियंत्रण का कहीं कोई प्रावधान ही नहीं है, जबकि यह लोकतंत्र की जीवंतता एवं पवित्रता के लिये प्राथमिकता होनी चाहिए। सत्ता का स्वाद ही ऐसा होता है कि कोई भी राजनेता इससे अछूता नहीं रहता। इसीलिए आजकल दल बदलने का दौर खूब हो रहा है। यह बात दूसरी है कि ज्यादातर नेताओं में भाजपा का दामन थामने की होड़ मची है। एक दिन पहले भाजपा पर निशाना साधने एवं जीभर कर कोसने वाले नेताओं को एकाएक भाजपा इतनी अच्छी क्यों लगने लगती है? भाजपा को भी सोचना चाहिए कि आखिर ये अवसरवादी नेता जब भी उनके अनुकूल नहीं हुआ तो उसे भी बाय-बाय कर देंगे? दलों को विचार करना ही होगा कि राजनीति के मायने चुनाव जीतना भर ही है या फिर वे विचारधारा के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं को मौका देकर राजनीति को स्वस्थ रखना चाहते हैं। लोकतंत्र में जनता की आवाज की ठेकेदारी राजनैतिक दलों एवं नेताओं ने ले रखी है, पर ईमानदारी से यह दायित्व कोई भी दल एवं नेता सही रूप में नहीं निभा रहा है। ”सारे ही दल एवं नेता एक जैसे हैं“ यह सुगबुगाहट जनता के बीच बिना कान लगाए भी स्पष्ट सुनाई देती है। स्वस्थ राजनीति में ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो निष्पक्ष हो, ईमानदार हो, सक्षम हो, सुदृढ़ हो, स्पष्ट एवं सर्वजनहिताय का लक्ष्य लेकर चलने वाला हो। लेकिन स्वार्थी, अक्षम, दागी नेताओं को किसी भी दल में जगह देना यह उस दल की मजबूती एवं स्वस्थ राजनीति पर एक बदनुमा दाग है। विडम्बना है कि लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं, मस्तिष्क नहीं। इसका खामियाजा हमारा लोकतंत्र भुगतता है, भुगतता रहा है। ज्यादा सिर आ रहे हैं, मस्तिष्क नहीं। जाति, धर्म, स्वार्थ और वर्ग के मुखौटे ज्यादा हैं, मनुष्यता के चेहरे कम। तभी राजनीति अवसरवादिता का अखाड़ा बनती जा रही है।